Thursday, August 16, 2012

तुम्हारी ही तो ज़िद थी, इश्क़ मेरा आज़माओगे..


सनम, ग़र तुम क़दम इस राह पर, यूंही बढ़ाओगे,
भरोसा इश्क़ से, सारे ज़माने का उठाओगे..

ख़ुदा हद बेवफ़ाई की, बना सकता तो था लेकिन,
उसे मालूम था, क्या फ़ायदा, तुम पार जाओगे..

वो सारे ख़त, सभी तोह्फ़े, जला डाले हैं चुन-चुन कर,
मुझे दोगे रिहाई कब, मेरा दिल कब जलाओगे..

यही क्या कम करम है, रोज़ तुम ख़्वाबो में आते हो,
अब उस पर ये रहम, कि और की बाहों मे आओगे,

अभी तुम हो जवां, गिनते हो आशिक़ उंगलियों पे तुम,
हुस्न जब साथ छोड़ेगा, तो हक़ किसपे जमाओगे..

नया महबूब बोलेगा, कि बोलो इश्क है उससे,
करोगे क्या, लबों पे जब, मेरा ही नाम पाओगे..

कभी चारो तरफ़ होंगे, हज़ारो चाहने वाले,
मग़र नज़रें मुझे ढूंढेंगी, तो कैसे छुपाओगे..

अभी तक नींद से उठते हो मेरा नाम ले लेकर,
मग़र कहते हो तुम, तो मान लेता हूं भुलाओगे..

कभी ग़र ज़िदगी के मोड़ पर, फिर से मिले हम तुम,
तो अनदेखा करोगे, या गले मुझको लगाओगे..

मेरे मरने पे रोना था अगर, तो सोचते पहले,
तुम्हारी ही तो ज़िद थी, इश्क़ मेरा आज़माओगे..

7 comments:

  1. बहुत खूबसूरत रचना. विशेषकर अंतिम दोनों पंक्तियाँ.

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    साझा करने क् लिए धन्यवाद!

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  3. भावुक करती संवेदनशील रचना..
    शब्द -शब्द मन को छु लेनेवाले है...
    बहुत सुन्दर....
    :-)

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  4. Bahut hi gehri bhavnao se bhari rachna..
    Bahut Umda!!

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  5. वाह ... बहुत ही बढिया ।

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  6. good content. thanks
    https://vmsdcc.co.in/

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